ऐसी एक परम्परा युगों युगों से चली आ रही है कि इंसान की मृत्यु के बाद अगर उसका अंतिम संस्कार उसकी इच्छा अनुसार हो तो उसे मरणोपरांत शांति मिलती है. परन्तु आज की नई पीढ़ी का इस पर अपना अलग तर्क है. लेखक, निर्देशक विकास बहल ने इसी बहस पर अपनी नई फिल्म ‘गुडबाय’ का निर्माण किया है. फिल्म में अमिताभ बच्चन का रोल ‘बागबान’ की याद दिलाता है जिसमें अमिताभ बच्चन इसी तरह अपने बच्चों को सख्त अंदाज में सीख देते नजर आए थे. मंगलवार को 80 साल के होने जा रहे अमिताभ बच्चन की कंपनी सरस्वती एंटरटेनमेंट इस फिल्म की निर्माता भी है.
क्या है गुडबॉय की कहानी
चंडीगढ़ में हरीश भल्ला (अमिताभ बच्चन) और उनकी पत्नी गायत्री (नीना गुप्ता) रहते हैं. अमिताभ और नीना गुप्ता के चार बच्चे हैं जो अलग अलग सेटल हैं. नीना की हार्ट अटैक से मौत हो जाती है और फिर अमिताभ किस तरह से अपने बच्चों को पत्नी के अंतिम संस्कार पर बुलाते हैं. और वो बच्चे क्या वाकई में अपने परिवार से प्यार करते हैं. यही फिल्म की कहानी है. जहां वकील बनी तारा यानि रश्मिका मंदाना को रीति रिवाजों से परहेज है जैसे मौत के बाद नाक में रुई क्यों डाली जाती है और पैरों को बांधा क्यों जाता है. तो वहीं पवेल गुलाटी अपने काम और जिंदगी में ही मस्त है. मां के अंतिम यात्रा में भी airpod कान से उतरते नहीं हैं और फोन पर काम चलता रहता है. एक बेटा दुबई में फंस गया है और अमिताभ ये सुन लेते हैं कि मां की मौत की खबर सुनने के बाद ये बटर चिकन खा रहा है. वहीं एक बेटा पहाड़ों पर घूमने गया है और वो तब आता है जब मां का अंतिम संस्कार हो चुका होता है. कहानी साइंस और आस्था से जुड़े कई सवाल उठाती है.
गुडबॉय रिव्यू
कई सुपरहिट फिल्मे देने वाले विकास अपने दर्शकों के लिए पारिवारिक ड्रामा के रूप में गुडबाय लेकर आए हैं. इस फिल्म के जरिए बहल ने रीति-रिवाज और साइंस का मतभेद, एक साधारण मीडिल क्लास फैमिली में रोजाना होने वाली उलझनो के साथ साथ, आज के दौर में परिवार के बीच बढ़ती दूरियां और किसी अपने का जाने का गम, जैसी चीजो को पेश किया है.
मुंडन करने का क्या लॉजिक है, डेथ के बाद बॉडी की नाक में रुई क्यों डाली जाती है, बॉडी के पैरों के अंगूठों को एकसाथ क्यों बांधते हैं क्या ये महज अंधविश्वास है या कोई साइंस, इस तरह के सवालों का जवाब विकास ने फिल्म के जरिए बखूबी दिया है.
गुडबॉय एक ऐसे मर्मस्पर्शी मोड़ पर ले जाते है. जहाँ आपके आंसू रुकने का नाम ही नहीं लेते हैं. क्रिटिक के दृष्टि से बेशक फिल्म में कुछ खामियां जरूर हैं, लेकिन कहानी इतनी अपनी सी लगती है कि आप उन कमियों को नजरअंदाज कर जाते हैं. फिल्म की शुरूआत होते ही आप 15 मिनट में रोने लगते हैं और इसकी खासियत यह है कि इंटेंस सब्जेक्ट होने के बावजूद मेकर ने इसको बखूबी बैलेंस किया है. सभी सिचुएशन इतनी खूबसूरती से फिट किए गए हैं कि आप रोते-रोते कब हंसने लगते हैं, वो समझ नहीं आता है.
कैसी है कलाकरों की एक्टिंग
अमिताभ बच्चन ने बड़ी ही खूबसूरती से अपने रोल को निभाया है. अमिताभ की एक्टिंग को वैसे भी रिव्यू नहीं किया जा सकता. वो अपने किरदार में पूरी तरह से फिट हैं. पुष्पा में श्रीवल्ली जैसे किरदार को निभाने वाली रश्मिका मंदाना को गुड बॉय के मॉर्डन कैरेक्टर में देखकर अच्छा लगता है. इस फिल्म को देखने की एक बड़ी वजह रश्मिका रहीं क्योंकि वो फ्रेश लगती है. उनमें नयापन नजर आता है. पवेल गुलाटी ने अच्छा काम किया है. काम के चक्कर में परिवार के बीच बैलेंस बैठाने वाला ये किरदार उनपर सूट भी किया है. बाकी के किरदार भी ठीक हैं.
टेक्नीकल रूप से कमजोर लगती है फिल्म
आखिर विकास बहल कहना क्या चाहते हैं, ये बात कहानी से लेकर निर्देशन, अभिनय और गीत-संगीत के स्तर पर अंत तक समझ नहीं आता कि बेटी अपनी जीत की खुशी अपनी मां से शेयर ना कर पाने के कारण दुखी है. लेकिन, ये जीत क्या थी, इसका फिल्म में कहीं भी जिक्र नहीं है. फिल्म में आपको नौ गाने देखने को मिलेगे लेकिन ‘जय काल महाकाल’ के अलावा ऐसा कोई गीत नहीं, जो आपको याद रह सके. फिल्म की शूटिंग देहरादून और ऋषिकेश में भी की गई है. लेकिन यहां की खूबसूरती परदे पर अपने नैसर्गिक रूप में नजर नहीं आती. फिल्म का संपादन भी और चुस्त हो सकता था.
देखे की ना देखे
काफी लम्बे समय बाद फैमिली ड्रामा दर्शकों को इस फिल्म में देखने के लिए मिलेगा. बेहतरीन एक्टिंग और खूबसूरत मेसेज के लिए यह फिल्म को एक मौका दिया जा सकता है. स्लाइस ऑफ लाइफ वाली फीलिंग देती यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी.